यो धर्मशीलो जितमानरोषो विद्याविनीतो न परोपतापी।
स्वदारतुष्टृः पर-दार-वर्जितो न तस्य लोके भयमस्ति किञ्चत्।।
यः धर्मशीलः – जो धर्मशील होता है
जित-मान-रोषः – अभिमान और क्रोधको जीतने वाला होता है
विद्या-विनीतः – विद्या से विनम्र होता है
न परोपतापी – दूसरों को कष्ट नहीं देता
स्वदार-तुष्टः – अपनी स्त्री में तुष्ट रहता है और
पर-दार-वर्जितः – दूसरी स्त्रियों के संसर्ग से अलग रहता है।
तस्य लोके- उसे संसार में
किञ्चित् भयं न अस्ति – कुछ भी भय नहीं होता।
परोपतापी (परोपतापिन् – प्र0 एक0) पर – उपतापिन्-पुंलिङ्ग विशेषण।