केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हाराः न चन्द्रोज्ज्वलाः,
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृताः मूर्धजाः ।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते,
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।।
नी.श. १९
न कंगन, न चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, न स्नान, न अनुलेप, न फूल, न अलंकृत केश मनुष्य को अलंकृत करते हैं । केवल एक वाणी जो संस्कृत को धारण करती है, पुरुष को अलंकृत करती है । अन्य भूषण तो नष्ट हो जाते हैं वाणी का भूषण ही निरन्तर रहता है ।